Lekhika Ranchi

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राष्ट्र कवियत्री ःसुभद्रा कुमारी चौहान की रचनाएँ ःबिखरे मोती

ग्रामीणा

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इसी बीच किसी काम से सोना की सास को कुछ दिनों के लिए गाँव जाना पड़ा। अब पति के ऑफिस जाने के बाद वह स्वच्छंद हिरनी की तरह फिरा करती। कोई रोक-टोक करनेवाला तो था नहीं। कभी-कभी वह चिक से बाहर भी चली जाया करती। आसपास की कई औरतों से उसकी जान-पहचान भी हो गई। वे लोग सोना के घर आने-जाने लगीं। वह लोग, जो सोना से घुल-मिलकर घंटों बातें किया करते थे, बाहर जाकर उसके विषय में न जाने क्या-क्या कहते? धीरे-धीरे इन बातों की चर्चा विश्वमोहन के कानों में भी जा पहुँची। उन्होंने गाँव से अपनी माँ को बुला भेजा। साथ ही सोना को भी समझा दिया कि वह सँभलकर रहे। सास के आने पर सोना पर फिर पहरा बैठ गया। सोना का मन ज़रा-सा मौका पाते ही साफ़ हवा के लिए मचल उठता और वह अपने को रोक न पाती। सख्त पर्दे में रह पाना उसके लिए कठिन हो गया।

एक दिन विश्वमोहन को शहर से बाहर किसी काम से जाना पड़ा। सास खाना खाने के बाद लेट गईं। सोना ने गृहस्थी का काम समाप्त करने के बाद कपड़े बदले और एक पुस्तक पढ़ने बैठ गई। पुस्तक कई बार पढ़ी हुई थी, इसीलिए उसका मन उस पुस्तक में नहीं लग रहा था। उसी समय ठेलेवाले ने आवाज़ दी, “हर माल मिलेगा, दो पैसा।'' किताब फेंककर सोना दरवाज़े की तरफ़ दौड़ी। ठेलेवाला दूर निकल गया था? निराश होकर वापिस लौटने ही वाली थी कि पड़ोस में रहनेवाला बनिए का लड़का फैजू दौड़ता हुआ आया और बोला, “ भौजी! सुई-धागा हो तो ज़रा मेरे कुरते का बटन टाँक दो, मैं कुश्ती देखने जाता हूँ।''
सोना ने पूछा, ''कुश्ती देखने जाते हो कि लड़ने?
फैजू ने मुस्कराकर कहा, ''दोनों काम करने भौजी! पहले बटन तो टाँक दो, नहीं तो देर हो जाएगी।''
सोना सुई धागा लाकर बटन टाँकने लगी। फैजू वहीं फ़र्श पर सोना से ज़रा दूर हटकर बैठ गया।

गाड़ी तीन घंटे लेट थी। विश्वमोहन ने सोचा, यहाँ बैठे-बैठे क्या करेंगे? चलें तब तक घर में बैठकर आराम करेंगे। सामान स्टेशन पर ही छोड़कर स्टेशन मास्टर की साइकिल लेकर विश्वमोहन घर पहुँचे। बैठक में फैजू को बैठा देखकर उनके तन-बदन में आग लग गई। अपने गुस्से को पीकर चुपचाप अंदर आए, माता के पास आकर बैठ गए। सोना ज्यों-त्यों किसी प्रकार बटन टाँककर कुरता फैजू को देकर अंदर आई। उसने स्वप्न में भी न सोचा था कि ज़रा-सी बात यहाँ तक बढ़ जाएगी। पति का चेहरा देखकर वह सहम गई। उसने डरते डरते पति से पूछा, “कैसे लौट आए?”
विश्वमोहन ने रुखाई से उत्तर दिया, “गाड़ी लेट है।"
सोना ने फिर पूछा, “अब कब जाओगे?''

विश्वमोहन ने तीव्र दृष्टि पत्नी पर डाली और कठोर स्वर में बोले, “गाड़ी तीन घंटे बाद आएगी, तब चला जाऊँगा।'' सोना के आग्रह करने पर विश्वमोहन अपने कमरे में गए। कुरसी पर बैठकर एक पुस्तक के पन्‍ने पलटने लगे। पढ़ने के नाम पर कदाचित्‌ वे एक अक्षर भी नहीं पढ़ पाए। अपनी अंतर्वेदना को चुपचाप लहू के घूँट की तरह पी रहे थे। सोना का आचरण उन्हें पीड़ा पहुँचा रहा था। पति की आंतरिक वेंदना उससे छिपी नहीं थी। उसने अपना सिर विश्वमोहन के पैरों पर रख दिया, बोली, “इस बार मुझे माफ़ कर दो, अब तुम जो कहोगे मैं वही करूँगी। मुझसे नाराज़ न होओ।"

विश्वमोहन के पैरों पर जैसे किसी ने जलती हुई आग धर दी हो। तिरस्कार के स्वर में वे बोले, “यह बात आज क्या तुम पहली बार कह रही हो? यह मौखिक प्रतिज्ञा है, हार्दिक नहीं। अब तुम्हारे इस आचरण के कारण मैं शहर में सिर उठाने के काबिल नहीं रहा। जो जी में आता है, करती हो, भला यह शोहदा तुम्हारे पास बटन टँकवाने क्‍यों आया? तुम इनकार न कर सकती थी?"
सोना ने भय-कातर दृष्टि से पति की ओर देखते हुए कहा, “ज़रा-सा तो काम था। पड़ोसी धर्म के नाते, मैंने सोचा कि कर देना चाहिए।"
“इसी प्रकार ज़रा-ज़रा-सी बातों से बड़ी-बड़ी बातें हो जाया करती हैं। निभाया करो पड़ोसी धर्म, मगर मेरी इज्जत का ख्याल मत करना।'' कहते हुए विश्वमोहन बाहर चले गए।

आहत अपमान से सोना तड़प उठी। बह कटे वृक्ष की भाँति खाट पर गिर पड़ी और खूब रोई। रो लेने के बाद उसका जी हल्का हुआ। उसे अपने गाँव का स्वच्छंद जीवन याद आने लगा। नदी पर गाँव -भर की बहू बेटियाँ एक साथ स्नान करने जाती थीं और फिर एक साथ गाती हुई लौटती थीं। कितना सुखमय जीवन था वह! चने के खेत में चने की नर्म-नर्म पत्तियाँ खाया करते थे। वहाँ छीना-झपटी भी हो जाया करती थी। अपने पड़ोसी कुंदन के लिए वह माँ से झगड़कर मिठाई भी ले जाती थी। क्रोशिए से एक सुंदर गोल बटुवा बनाकर उसने कुंदन को दिया था। कुंदन की भाभी नई-नई ब्याह कर आई थी। वह भी उन लोगों के साथ स्नान करने जाती थीं। साथ बैठकर झूला भी झूलती थी। फिर मैंने कौन-सा ऐसा पाप कर डाला कि इन्हें शहर में सिर उठाने की जगह नहीं रही। यदि किसी का कुछ काम कर देना पाप है तो शायद यह पाप जाने अनजाने मुझसे होता ही रहेगा। मेरे कारण उन्हें पग-पग पर लाँछित होना पड़े, तो मेरे इस जीवन का मूल्य ही क्या है? ऐसे जीवन से तो मर जाना ही अच्छा है। मैं घर के अंदर परदे में नहीं बैठ सकती, यही मेरा अपराध है न? इसी के कारण तो लोग मेरे आचरण में धब्बे लगाते हैं। मैं लोगों से अच्छी तरह बोलती हूँ, प्रेमपूर्ण व्यवहार करती हूँ। यही मुझमें बुराई है न? आज उन्हें मुझ पर क्रोध आया, उन्होंने तिरस्कार के साथ मुझे झिड़क दिया। इसमें उनका कोई कसूर नहीं है। पत्थर के पाट पर भी रस्सी के रोज़-रोज़ घिसने से निशान पड़ जाते हैं, फिर वे तो देवतुल्य पुरुष हैं। उनका हृदय तो कोमल है, इन अपवादों का असर कैसे न पड़ता? रामचंद्र जी ने भी तो ज़रा-सी ही बात पर गर्भवती सीता को बनवास दे दिया था। फिर ये तो साधारण मनुष्य ही हैं। इन्होंने तो जो कुछ कहा ठीक ही कहा। पर इसमें मेरा कौन-सा दोष है? जब इन्हीं को मेरा आचरण ठीक नहीं लगता तो मैं जीकर क्या करूँगी? इसी प्रकार के अनेक संकल्प-विकल्प सोना के मन में आए और चले गए।

तीन दिन बाद विश्वमोहत लौटे। जाने से पहले उनमें और सोना में जो कुछ बातचीत हुई थी, वे उसे प्राय: भूल से गए थे। सोना के लिए एक अच्छी-सी साड़ी, स्‍लीपर और कुछ हेयर क्लिप लिए हुए ये घर आए, किंतु सामने ही चबूतरे पर उन्हें फैजू बैठा हुआ मिला। विश्वमोहन उसे देखते ही तिलमिला उठे। सारी बातें ज्यों की त्यों ताजा हो गईं। चेहरा फिर गंभीर हो गया। घर आकर वे सोना से एक बात भी न कर पाए। माँ से एक दो बातें कर बिना भोजन किए ही ऑफिस चले गए। सोना से यह उपेक्षा सही न गई। पिछले तीन दिनों से वह खिड़की-दरवाज़े के पास भी न गई थी और उसने यह निश्चय कर लिया था कि अब वह कभी खिड़की दरवाज़ों के पास नहीं जाएगी। विश्वमोहन के व्यवहार ने उसे अधिक खिन्‍न कर दिया। अपने जीवन को समाप्त करने का उसे और कोई साधन न मिला। आँगन में लगे धतूरे के पेड़ से उसने दो-तीन फल तोड़ लिए और उन्हें पीसकर पी गई। कुछ ही क्षण बाद सोना के हाथ-पैर अकड़ने लगे। उसकी ज़बान ऐंठ गई और चेहरा काला पड़ गया। वह देख रही थी, किंतु बोल नहीं सकती थी। इसी समय तिवारी जी सोना को विदा करवाने आ पहुँचे। सोना पिता को देखकर बहुत रोई। देखते-ही-देखते सोना के प्राण-पखेरु उड़ गए। सोना सदा के लिए शांति की नींद सो गई। अपवाद की विषैली वायु उसे छू भी न सकती थी। घर भर में कोहराम मच गया। शाम छह बजे विश्वमोहन जी ऑफिस से लौटे। घर में रोने की आवाज़ सुनकर उनका हृदय किसी अज्ञात आशंका से काँप उठा। घर आकर देखा कि तिवारी जी कन्या की लाश को गोद में लेकर दहाड़ें मारकर रो रहे थे। इस बीच तिवारी जी कई बार कन्या को लेने आ चुके थे, किंतु विश्वमोहन ने विदा नहीं किया था। विश्वमोहन व तिवारी में कोई खास बातचीत न हुई। अंतिम संस्कार के बाद जब विश्वमोहन लौटे तो मेज पर उन्हें सोना का पत्र प्राप्त हुआ।

“मेरे देवता! मैं मर रही हूँ। मरनेवाला झूठ नहीं बोला करता। आज तो अंतिम बार विश्वास कर लेना, मैं निर्दोष थी। मुझे लगता है या तो यह दुनिया मेरे लायक नहीं, या मैं इस दुनिया के लायक नहीं। इस छल-कपट से परिपूर्ण संसार में मुझे भेजकर विधाता ने उचित नहीं किया। आप मेरी एक कठिनाई नहीं समझ सके। एक वातावरण से दूसरे वातावरण में पहुँचकर मैं अपने को शीघ्र ही अनुकूल नहीं बना पाई। अपने मरने का मुझे कोई अफ़सोस नहीं है, दुख है तो केवल इस बात का कि मैं आपको सुखी न कर सकी।”
-अभागिनी सोना

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2 Comments

Roshan

26-Jan-2022 07:34 PM

Nice

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Rakash

26-Jan-2022 06:41 PM

Nice

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